वर्तमान हमास इजराइल युद्ध में दोनों तरफ संकट है, एक तरफ इजराइल के 100 से अधिक बंदी हमास के कब्जे में है और दूसरी तरफ इजराइल ने गाजा पट्टी पर भारी बमबारी करके तमाम लोगों को घर से बाहर किया है। इस समस्या की जड़ें हमारे इतिहास में है। 1946 के पहले इजराइल नाम का देश नहीं था और उस क्षेत्र को फिलिस्तीन नाम से जाना जाता था। दक्षिण में गाजा पट्टी और उत्तर में गोलन हाइट्स और पूरब में वेस्ट बैंक सभी फिलिस्तीन राज्य के हिस्से थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यहूदियों ने आवाज उठाई कि उनका जिस प्रकार जर्मनी में नरसंघार किया गया है वह भविष्य में ना हो इसलिए उन्हें अपना एक राज्य मिलना चाहिए। यूं तो देखा जाए तो नरसंघार जर्मनी ने किया था इसलिए जर्मनी की सरकार को उन्हें जर्मनी का एक हिस्सा दे देना चाहिए। यही जर्मनी का प्रायश्चित होता। लेकिन अमेरिका इंग्लैंड फ्रांस और अन्य देशों ने मिलकर यहूदियों को फिलिस्तीन में एक राज्य बनाने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र में 1947 में पारित किया। इस प्रस्ताव के अनुसार उत्तर में गोलन हाइट्स, पूरब में वेस्ट बैंक और दक्षिण में गाजा पट्टी, यह इजराइल के हिस्से से बाहर थी।
1956 में अरब देशों और इजराइल के बीच में युद्ध हुआ जिसमें अरब देशों की हार हुई। उस समय इजराइल ने उत्तर में गोलन हाइट्स, पूर्व में वेस्ट बैंक और दक्षिण में गाजा पट्टी के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया और इजराइल का आकार बढ़ गया। इस पूरे समय में यानी 1947 से 1956 के बीच तमाम लोगों को फिलिस्तीन से इजराइली सरकार ने मार के भगाया और उस प्रक्रिया को आज फिलिस्तीन लोग नबका के नाम से याद रखते हैं।
यह थी वर्तमान समय की बात अब इससे भी पूर्व इतिहास में जाएं और यह देखें कि पश्चिमी देशों ने इजराइल को फिलिस्तीन में ही क्यों बनाया। कारण यह कि बाइबल के अनुसार भगवान ने यहूदियों को फिलिस्तीन की भूमि को दे दिया था। जेनेसिस 15.18 में भगवान ने अब्राहम को कहा, कि “तुम्हारे वंशजों को मैं इजिप्ट की नदी से यूफ्रेटिस नदी तक की भूमि देता हूं।” यहां पहली बात कि यह भूमि अब्राम के वंशजों को दी गयी थी। अब्राहम के वंशजों को नहीं। इसके बाद भगवान ने अब्राम का नाम अब्राहम कर दिया था। उसमें एच वर्ण को जोड़ दिया था। जानकार बताते हैं कि एच का तात्पर्य विस्तार से होता है यानी अब्राम को विस्तृत करके अब्राहम बनाया गया। इससे समझ में आता है कि जेनेसिस 15.18 में भूमि दी गई थी वह तो अब्राम के वंशजों को दी गई लेकिन बाद में जब अब्राम का नाम अब्राहम हो गया और वह केवल अपने कुनबे के प्रमुख के स्थान पर संपूर्ण मानवता के प्रमुख हो गए तब वह दान अब केवल अब्राहम के वंश को नहीं बल्कि उनके मानने वाले समस्त मानव को दी गई ऐसा मानना चाहिए।
यहां दो शब्दों पर ध्यान देना जरुरी है। पहला शब्द है “गिव” या देना। इसके लिए हिब्रू में शब्द है नाथन जिसका एक अर्थ है दिखाया। दूसरा शब्द है वंशज या डिसेंडेंट जिसके लिए हिब्रू वर्ड है जेरा। इसका एक अर्थ है भौतिक वंशज और दूसरा अर्थ है नैतिक गुण अथवा धर्म का पालन करने वाला। अतः यदि हम इस वर्स के अल्टरनेटिव अर्थों को ले तो अर्थ निकलता है कि मैंने जो भूमि अब्राहम और आइजक को दी थी वह मैं तुम्हें भी दिखा रहा हूं और मैं इसे तुम्हारे नैतिक फॉलोअर्स को दे रहा हूं।
इसके आगे एक्सोडस 23.31 में जब मूसा यहूदियों को मित्स्राईम नाम की जगह से लेकर इजराइल की तरफ जा रहे थे उस समय भगवान ने उनसे कहा, मैं तुम्हारी सीमायें “लाल सागर से फिलिस्तीन सागर” तक निर्धारित करूंगा और तुम वहां के रहने वालों को निकाल दोगे। एक्सोडस के इस वक्तव्य से पहली समस्या यह बनती है कि पूर्व में कहा गया था कि मैं तुमको इजिप्ट की नदी से यूफ्रेटिस नदी तक की भूमि दूंगा और अब कहा जा रहा है कि मैं तुमको लाल सागर से फिलिस्तीन सागर तक की भूमि दूंगा। इसका अर्थ यह है कि ये दो अलग-अलग भूमि है। बाइबल में इस सीमा के निर्धारण का कोई विश्वसनीय विवरण नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि मूसा लगभग 1500 ईसा पूर्व मित्स्राईम से यहूदियों को लेकर निकले थे लेकिन हमारे पास जो बाइबल आज उपलब्ध है उसकी रचना लगभग 600 ईसा पूर्व में हुई थी यानी कि लगभग 900 वर्षों तक बाइबल को केवल मौखिक रूप से एक वंश से दूसरे वंश तक ले जाया गया। इस अवधि में क्या बदला गया इसका हमें कोई ज्ञान नहीं है। लेकिन यह जरूर दिखता है कि प्रॉमिस लैंड की सीमायें बदल दी गई है।
दूसरी समस्या है कि एक्सोडस में कहा गया कि Lord God Gives You This Land. यहां लॉर्ड और गॉड दो शब्द उपयोग किए गए हैं। लॉर्ड के लिए हिब्रू में एलोहिम शब्द यूज किया जाता है जो हिंदुओं के ब्रह्म के समान है और गॉड के लिए याहवे का शब्द यूज किया जाता है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं के समान है। यदि यह भूमि यहूदियों को याहवे या ब्रह्मा जी ने दी तो उसका एक सीमित दायरा है। वह केवल अपने कुनबे की रक्षा करते हैं, जैसे एक हमारे यहां शैव हैं और दूसरे वैष्णव हैं तो वैष्णव बोलेंगे कि विष्णु जी ने हमारी रक्षा की और शैव बोलेंगे शिव जी ने हमारी रक्षा की। यह जरूरी नहीं कि विष्णु और शिव एक ही बात कहे। दोनों में अंतर विरोध हो सकता है। इसी प्रकार एलोहिम या ब्रह्म सर्वव्यापी है। उनमें संपूर्ण मानवता है लेकिन याहवे जो है वह इजराइल के आती है। लेकिन याहवेह लोगों का व्यक्तिगत भगवान है। तो यदि यह भूमि इजराइल के भगवान ने यहूदियों को दी तो इसको मानना संपूर्ण विश्व को जरूरी नहीं। याहवेह को संपूर्ण विश्व के भगवान एलोहीम के बराबर नहीं रखा जा सकता है। यदि भूमि याहवे द्वारा दी गई तो वह सबके ऊपर लागू नहीं होता है।
तीन समस्ययें सामने आती हैं। पहली यह कि बाइबल की रचना में अनिश्चितता है क्योंकि 900 साल तक वह मौखिक लिया गया। दूसरी बात यह कि जो भूमि का दान किया गया उसकी सीमायें बदल गई। तीसरी बात की उस भूमि का दान याहवे ने किया ना कि एलोहिम ने।
इन समस्याओं के बावजूद अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस और अन्य देशों ने मिलकर यहूदियों को इजराइल की भूमि देने का प्रस्ताव पारित कर दिया और उसे लागू कर दिया जबरदस्ती। सारांश यह है कि इजराइल का बनना मूल रूप से अनैतिक है और यह वर्तमान समस्या की जड़ है क्योंकि अरब लोग और मुसलमान संसार इजराइल के बनने को स्वीकार नहीं करता है।
दूसरी तरफ समस्या है कि जर्मनी में तमाम यहूदियों को मारा गया। उनको भी न्याय चाहिए। इसलिए हमारे सामने न्याय की दो पुकार हैं, एक तरफ अरब देश के लोगों को न्याय चाहिए कि उनकी जमीन के ऊपर जबरन कब्जा कर लिया गया और दूसरी तरफ यहूदियों को न्याय चाहिए क्योंकि उनके बड़े कुनबे को जर्मनी में मौत के घाट उतारा गया था। इस दोहरी समस्या के समाधान में सबसे बड़ा रोड़ा यह है कि मुस्लिम जगत एक भाषा नहीं बोल रहा है।
सऊदी अरेबिया के प्रमुख प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का कहना है कि हम जिस स्थिति में हैं उसमें इजराइल से युद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि 1956 में हम इजराइल से हार चुके हैं। उनका प्रयास यह रहता है कि इजराइल से बातचीत करके अमेरिका से दबाव डाल के जैसे भी हो सके जितना निकल सके उतना निकाल लो और बाकी बर्दाश्त करो। इसलिए सऊदी अरब के अमेरिका से बहुत अच्छे रिश्ते हैं और उन रिश्तों के माध्यम से सऊदी अरेबिया को भारी आर्थिक लाभ भी मिलता है। दूसरी तरफ ईरान के अयातोल्लाह खामिनी है जिनका कहना है कि हमको न्याय लेना चाहिए उसके लिए युद्ध करना चाहिए। दृष्टि से ईरान गोलन हाइट के हजबोला, गाजा के हमास और सऊदी अरेबिया के दक्षिण में यमन में हूथी को लगातार समर्थन कर रहा है। इस समर्थन के कारण वर्तमान गाजा का युद्ध ईरान का और इजराइल का प्रॉक्सी वॉर है।
इस समस्या के समाधान के लिए मुस्लिम जगत को अंतर मंथन करना चाहिए। कुरान 4.135 में लिखा गया है कि “दृढ़ता से न्याय के पक्ष में खड़े रहो चाहे वह आपके स्वयं या परिवार के ही विरुद्ध क्यों ना हो।” कुरान साफ-साफ कह रही है कि न्याय का पक्ष लो तुम कमजोर हो या तगड़े हो इसका निर्णय मैं करूंगा। तुम इसके लिए चिंता मत करो। पुनः कुरान 3.110 में कहा गया कि “जो सही है उसी का पालन करो जो गलत है उसको ना करो।” इन आया को देखते ईरान और सऊदी अरेबिया दोनों को मिलकर एक रास्ता बनाना चाहिए क्योंकि फिलिस्तीन के अरब लोगों को न्याय दिलाना इन सब की जिम्मेदारी बनती है।
सऊदी का रास्ता सुलह करके सर झुकाकर जो मिल सके वह लेना है, जबकि ईरान का मंतव्य दृढ़ता से सामना करना है। इस प्रकार के विवाद को सुलह करने के लिए भी कुरान में रास्ता दिया गया है। आया 4.59 में कहा गया “यदि विवाद हो तो अल्लाह या रसूल से दिशा लेना होगा।” समस्या यह है कि रसूल तो आज हमारे बीच में है नहीं और जो वह लिख कर गए उसका इंटरप्रिटेशन अलग-अलग होता है। इससे कोई सहमति नहीं बनती है। और अल्लाह हमको दिखता नहीं। तो हम सऊदी और ईरान के बीच में यह जो अंतर्विरोध है इसको आखिर सुलह करें कैसे?
इस संबंध में रसूल मोहम्मद ने कहा कि मैं तुम्हारे बीच में दो चीजें छोड़ के जा रहा हूं उन्हें पकड़े रहोगे तो तुम कभी भी गलत रास्ते पर नहीं चलोगे। ये दो चीजें हैं एक तो कुरान की पुस्तक और दूसरी सुन्ना या ट्रेडीशन या परंपरा। अब ट्रेडीशन क्या है इसको भी निर्धारित करना कठिन है। एक उदाहरण से ये बात स्पष्ट हो जाएगी। किसी समय रसूल कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि खजूर के वृक्षों में नर और मादा को ग्राफ्ट किया जा रहा है जिससे कि उत्पादन बढ़े। रसूल ने कहा कि यह ठीक नहीं है, ऐसा मत कीजिए। उनके कहने से लोगों ने खजूर की ग्राफ्टिंग बंद कर दी। जब ग्राफ्टिंग बंद हो गई तो उनकी उपज कम हो गई जब यह बात रसूल के सामने लाई गई तो उन्होंने कहा कि “यदि क्राफ्टिंग का कुछ उपयोग है तो आप उसको कीजिए। यह मैंने जो कहा था वह मेरी व्यक्तिगत समझ थी और इसको आपको मानना जरूरी नहीं है। यदि मैं अल्लाह के आधार पर या अल्लाह के नुमाइंदे की तरह से कुछ बोलता हूं तो वह आपके ऊपर बंदिश है।” अतः कुरान और हदीस का धार्मिक विषयों में दायरा सर्वोपरि है लेकिन जो सामाजिक और राजनीतिक विषय की बात है उसमें कुरान और हदीस का दखल कम है। उसमें हमको अपनी बुद्धि से उपयोग करना पड़ेगा। जैसे रसूल ने कहा कि यदि आपको लगता है कि खजूर का ग्राफ्टिंग अच्छा है तो आप कीजिए यद्यपि मैंने पहले कहा था कि ऐसा मत करो।
इसलिए सऊदी और ईरान के बीच में हमास युद्ध को लेकर अंतर्विरोध का सुलह कुरान और हदीस के आधार पर नहीं हो सकता है और करना भी नहीं चाहिए क्योंकि वह आज की परिस्थितियों की बात है। रसूल ने स्वयं कहा है कि जहां तक सांसारिक विषय है उसमें आप आज की परिस्थितियों के अनुसार अपना निर्णय लीजिए।
इस बात को मान लें तो अगला प्रश्न उठता है कि सांसारिक निर्णय ले कैसे? यहां पर कुरान में ही 4.59 में कहा गया कि जो शासन में हो उसकी आज्ञा को मानो। यह कठिन बात है। लेकिन शासकों में कुछ गड़बड़ है। यदि सऊदी के शासक और ईरान के शासक दो विपरीत बातें कह रहे हैं तो कुछ कमी है।
इन शासकों की बात को सही कैसे किया जाए यह मुद्दा बनता है। मेरी जानकारी में इस्लाम धर्म में इसका कोई रास्ता स्पष्ट नहीं है। लेकिन इसी तरह की समस्या ईसाइयों में है जिसका उन्होंने बड़ा सुंदर रास्ता निकाला है। प्रश्न है कि पोप का चयन कैसे हो? उन्होंने यह व्यवस्था बनाई है कि जितने 30-40 कार्डिनल होते हैं उन सबको रोम में एक विशेष स्थान पर ले जाकर के बंद कर दिया जाता है। उनका बाहरी संसार से संपूर्ण संपर्क खत्म कर दिया जाता है। ना टेलीफोन, टेलीग्राम, आदमी का आना जाना बंद कर दिया जाता है। यह लोग अंदर स्वयं अपनी व्यवस्था करते हैं और 30 दिन 40 दिन जितना समय लगे तब तक यह उसी जगह बैठे रहेंगे जब तक उनके बीच में आपसी सर्व सम्मति से यह तय ना हो जाए कि कौन पोप बनेगा क्योंकि सभी पोप बनने के अधिकारी होते हैं। जब इनमें यह तय हो जाता है तब वह अपनी चिमनी से सफेद रंग का धुआ छोड़ते हैं। इजराइल हमास के युद्ध को समाप्त करने के लिए यदि मुसलमान संसार को एक मत बनाना है तो इसका एक उपाय यह हो सकता है कि पांच सऊदी आध्यात्मिक व्यक्ति और पांच ईरानी अध्यात्मिक व्यक्तियों को एक स्थान पर बंद कर दिया जाए और उनसे कहा जाए कि आप लोग तब तक यहां रहिए जब तक आप एक मत हो कर इस विषय का दिशा निर्देश नहीं देते हैं कि इजराइल के सामने झुक के जो मिले वह लेना चाहिए या इजराइल से युद्ध करना चाहिए?
वर्तमान में हमारे सामने दोनों तरफ समस्या है। एक तरफ अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी ने फिलिस्तीन के लोगों के प्रति अन्याय किया है और उनकी इच्छा के विपरीत वहां उनकी जमीन को इजराइलीयों को दे दिया है। इन्हें याद रखना चाहिए कि किसी समय ब्रिटिश साम्राज्य पर सूर्यास्त नहीं होता था। आज ब्रिटिश साम्राज्य लुप्त हो गया है। इसी प्रकार यदि यह वर्तमान अन्याय चालू रहेगा तो मेरा निश्चित मानना है कि वर्तमान का अमेरिकी साम्राज्य भी समाप्त हो जाएगा। अतः पश्चिमी देशों को और इजराइल को यह समझना चाहिए कि अन्याय को जोर से लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता है। दूसरी तरफ मुसलमान संसार को समझना चाहिए कि जब उनके शासक ही दो अलग-अलग सुरों में बात कर रहे हैं तब मुसलमानों को न्याय नहीं मिल सकता है।
इसलिए दो कदम उठाना चाहिए। एक अमेरिका और इजराइल को प्रायश्चित करना चाहिए। कैसे होगा वह अलग विषय है। दूसरा मुसलमान संसार को एक आवाज से इस समस्या के प्रति अपना वक्तव्य देना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते तो यह युद्ध जारी रहेगा और मानव संसार उत्पीड़ित होता रहेगा।
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